२८ मई, १९६९

 

     बस, एक हीं समाधान है : शरीरका परम पुरुषके साथ सीधा संबंध । यही एक चीज है ।

 

       बस यही ।

 

    लेकिन शरीरके कोषाणु.. (पता नहीं यह इस शरीरकी ही विशेष बात है, मै यह नहीं मान सकती कि यह शरीर इतना अपवादिक है) उन्हें पूरा पक्का विश्वास है, वे प्रयास करते हैं, वे प्रयास करते हैं, सारे समय, सारे समय, सारे समय प्रयास करते है, हर दैन्यके आनेपर, हर कठिनाईमें, हर... । बस, एक ही समाधान है -- एक ही चीज है : ''तू, केवल तू, तेरे ही प्रति - केवल तेरा ही अस्तित्व है ।', इसीका अनुवाद लोगोंकी चेतनामें, बौद्ध लोगों तथा दूसरोंकी चेतनामें इस तरह हुआ है कि जगत् भ्रांति है, परंतु यह आधा अनुवाद है ।

 

    सच्चा समाधान तो यह है : ''तेरा ही अस्तित्व है, बस, तू ही.. .'' बाकी सब, बाकी सब दैन्य, दैन्य, दुःख... अंधकार ।

 

   शायद, शायद वह.. .स्पष्ट है कि श्रीअरविदकी दृष्टिसे अतिमन इस सब दैन्यसे अलग है ।

 

      बस, केवल 'वही' है । अन्यथा कठिन है ।

 

    शायद अब अधकचरे उपायोंसे काम न चलेगा... । पता नहीं, शायद उनके निश्चित आधारपर हटनेका समय आ गया है ।

 

    जहांतक इस शरीरका प्रश्न है वह डटा हुआ है । लेकिन मेरा ख्याल था कि... इसके लिये व्यक्तिको बहुत, बहुत सहनशील, बहुत ज्यादा सहनशील होना चाहिये । इसीलिये मैंने औरोंको यह करनेके लिये प्रेरणा नहीं दी । लेकिन इस सारेका मतलब यह मालूम होता है कि अब समय आ गया है । मुझे पता नहीं ।